बैच नं. 1841

बहुत दिनों बाद शरीर को आराम मिला है पर सांसें बहुत तेज़ दौड़ रही हैं, शरीर पलंग पर है पर ये बिस्तर नहीं है, पास में पानी की बोतल और कुछ फल तो हैं पर ये खाना नहीं है, साथ में और लोग भी हैं पर ये परिवार वाले नहीं हैं, शायद अब तक आप समझ गए होंगे में Covid Isolation सेंटर में भर्ती हूँ. मेरे जैसे और भी लोग यहाँ भर्ती हैं. सभी की देख रेख का ज़िम्मा डॉक्टर, पुलिस, सफाई कामगार और कुछ वालंटियर्स ने उठाया हुआ है. कुछ समय पहले तक में भी उनमे से एक था पर अब मेरी ज़िम्मेदारी भी उनका  ज़िम्मा हो गयी है. मैं हूँ बैच नं 1841, पुलिस का सिपाही.        मैं यहाँ से स्वस्थ होकर वापस अपनी आमद दर्ज करा ही दूंगा. मुझे किसी से कोई परेशानी या नाराज़गी भी नहीं है, पर मौका मिला है तो आपसे एक सिपाही की भावनाएं साझा करना चाहता हूँ. मैं भी आप की तरह रोज़ ड्यूटी पर जाता हूँ, सुबह मेरे बच्चे भी मुझे गेट तक छोड़ने आते हैं शाम को पापा-मम्मी और पत्नी वापसी का इंतज़ार करते हैं. मैं भी आपकी तरह पूरी ज़िम्मेदारी से अपनी ड्यूटी करता हूँ. मेरा काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना है जिसका जिम्मा मैं अपने साथियों के साथ अधिकारियों के निर्देशानुरूप पूर्ण करता हूँ. इनको पूर्ण करने मैं कभी-कभी चोट भी लगती है जिसका दर्द हफ़्तों रहता है पर मैं छुट्टी नहीं लेता हूँ ना ही मेरा काम वर्क फ्रॉम होम के ज़रिये चलता है. किसी भीड़ को नियंत्रित करने में कभी किसी को आँख में पत्थर लगता है तो कभी सर पर टाँके आते हैं पर बुरे हम ही कहलाते हैं. बहते खून को देखकर हमारे परिवार की आँखों में भी आंसू आ जाते हैं, अभी आराम करो आप ड्यूटी बाद में जाना कहते हैं पर अगले ही दिन वर्दी पर इस्त्री कर बूट चमकाते हुए हमे देते हैं. हम इस बारे में हमारी बुराई करने वालों से कुछ नहीं कहते ना ही उम्मीद करते हैं. पड़ोसी का झगड़ा हो, व्यापारी का मुकदमा, हत्या का प्रकरण हो या आत्महत्या के लिए प्रेरित करना, अवैध खनन हो या जंगल की कटाई, घरेलु हिंसा हो या दंगे भड़काने का आरोप. इन सभी को रोकने और इन पर कार्यवाही करने की ज़िम्मेदारी पुलिस पर होती है और हम करते भी हैं. ये कहना की पुलिस घटना होने के बाद आती है ये वैसे ही है जैसा क्लाइंट अपने IT प्रोग्रामर से बोले तुमने पहले क्वेरी सोल्व क्यों नहीं की या मरीज़ बिना डॉक्टर के पास जाए डॉक्टर से बोले की बीमारी से पहले तुमने दवाई क्यों नहीं दी या ऑपरेशन क्यों नहीं किया. पुलिस अपराध रोकने की पूरी कोशिश करती है पर कभी-कभी सफलता नहीं मिल पाती. फिर भी हम हारते नहीं हैं नए जोश और जनून के साथ काम करते हैं और करते रहेंगे.                अब कोरोना की ही बात कर लें, कभी हम पर थूका गया तो कभी हमें भगाया गया पर हम डटे रहे ताकि ये संक्रामक बीमारी किसी और को अपनी चपेट में ना ले. किसी ने पत्थर बरसाए तो किसी ने लाठी हम 2 कदम पीछे भी हटे पर आगे बढ़कर उसका सामना भी किया, चोट भी लगी, दर्द भी हुआ, पर आपके लिए हम डटे रहे. ऐसा नहीं है की हमारा सम्मान नहीं होता हम पर फूल बरसाने वाले भी बोहोत हैं, पर वो दर्द जाते-जाते जाता है जो किसी एक को बचाने में किसी दूसरे से पत्थर खाना पड़ता है. हम हफ़्तों से अपने घर नहीं गए, धूप में खड़े हैं, पीने का पानी गर्म भाप छोड़ता है , खाना हम ठंडा खाते हैं, छाँव में नहीं बैठ पाते हैं, फ़ोन पर अपने से बात नहीं कर पाते हैं. यदि हम छाँव में बैठ जाएं या फ़ोन पर किसी से ऑडियो-वीडियो कॉल कर लें तो अगले ही पल वीडियो वायरल हो जाता है, लोग ये क्यों नहीं समझते की हमारा भी परिवार है, हम भी आप ही हैं. हफ़्तों से घर नहीं गए कोई बीमार है, किसी के बेटे का जन्मदिन है, किसी की बेटी सीढ़ियों से फिसल गयी, किसी के खेत में जानवर फसल चट कर गए, किसी अपने की मौत हो गयी और ना जाने क्या-क्या. हमे आपकी तरह लंच-ब्रेक नहीं मिलता या टी-ब्रेक, खाना और चाय समय पर मिल जाए वही काफी है हमारे लिए.          हमारे अधिकारी हमारे साथ खड़े होते हैं जब हमे ज़रुरत होती है, वही हमारा परिवार हैं, उन सबका साथ ना हो तो हम हमारी ड्यूटी ही ना कर पाएं. वो ही मानसिक रूप से मज़बूत बनाते हैं और हर कठिनाई को सहज रूप से सुलझाने की ताकत देते हैं. मैं एक सिपाही हूँ, शारीरिक और शैक्षिक योग्यता हासिल करने के बाद ही भर्ती होता हूँ. जब भर्ती होने के बाद पहली बार वर्दी पहन आमद देता हूँ तो सिस्टम को बदल तो नहीं सकता पर कुछ सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश करने की आशा करता हूँ. फिर शुरू होता है मेरा सफ़र, हर चौराहे पर मैं आपसे मिलता हूँ, हर जिले या राज्य की सीमा का मिलता हूँ, हर भीड़भाड़ वाले इलाके मैं आपके साथ रहता हूँ, रात को बस अड्डे पर आप चाय पीते हैं मैं गश्त करता हूँ, बड़ी सुबह आप स्टेशन पर पोहा या समोसा खाते हैं मैं वहाँ संदिग्धों पर नज़र रखता हूँ, मंदिर के सामने, मज़ार के करीब, पार्क के गेट पर, कॉलेज के नुक्कड़ पर. सबसे ज़्यादा मुलाकात आपकी मुझसे ही होती है, रोज़ मिलेंगे तो अच्छे या बुरा दोनों बनेंगे. मैं अपनी ड्यूटी पूरी लगन और निष्ठा के साथ करता हूँ, पर कुछ मेरे ही साथी यदि कुछ गलती कर दें तो उसके लिए मैं या मेरा पूरा परिवार तो ज़िम्मेदार नहीं. हर पेशे मैं कुछ ऐसे लोगो होते हैं पर सभी को एक जैसा देखना ये कोई अच्छी बात नहीं होती. आप देखते हैं मैं चौराहे पर चालान बनाता हूँ, अपने लिए नहीं आपकी सुरक्षा के लिए, ताकि आप सुरक्षित तो आपका परिवार सुरक्षित, यदि मैं लड़कों के झुण्ड पर किसी जगह हल्की लाठी चलाता हूँ तो आपके लिए ताकि आपके साथ जो बच्चे हैं या महिलायें हैं या सामान वो सुरक्षित रहे. थाने में मैं आपकी रिपोर्ट लिखता हूँ, उस पर कार्यवाही भी होती है. दो पड़ोसियों के झगडे भी सुलझाने आते हूँ तो उन्हें डांटने भी. हर किस्म की भूमिका अदा करता हूँ.               व्यक्ति सबसे ज़्यादा व्यथित तब होता है जब उसके आत्म-सम्मान पर ठेस पहुँचाई जाए. लोग कहते हैं की हम पत्थर हैं तो पत्थर बनाने वाले आप ही हैं. जब हम ड्यूटी ज्वाइन करते हैं तो कुछ अच्छा करने की कोशिश करते हैं पर चिलचिलाती धूप में कोई ऐसा आदमी जिसके मुँह से गुटके की पीक बह रही हो आपको अपमानित करे तो आप पत्थर से हो जाते हैं, लोगों के बीच आंसूओं को पीना सीख जाते हैं. राह चलता जब आपको अपमानित कर खुद को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करे तो आप पत्थर में तब्दील होने लगते हैं. जब आपको कुछ ऐसा सुनने मिले की पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने लगे तो आप पत्थर बनने की पूर्ण रूपरेखा बना लेते हैं और कुछ समय बाद पत्थर हो जाते हैं. पर जब हम किसी परेशान या दुखी को देखते हैं तो पूरी मदद करने का प्रयास करते हैं. क्यूंकि हम पत्थर होते नहीं हैं कुछ लोगों के कारण पत्थर से हो जाते हैं. आप लोग वीकेंड मनाते हैं शराब पीते हैं बवाल मचाते हैं हम आप लोगों के लिए सड़कों पर गश्त करते हैं. जब आपका बॉस या क्लाइंट कुछ कह दे तो आप दुनिया मैं आग लगाने की बात करते हैं, मारपीट पर उतारू हो जाते हैं तब तक सब सामान्य होता है, पर जब मैंने एक बार घर जाते वक़्त शराब पी तो मेरा वीडियो बना दिया मुझे अपराधी साबित कर दिया मुझे नौकरी से निकलवाने पे आतुर हो गए, उस दिन गाँव से फ़ोन आया था घर पर कुछ पैसों की ज़रुरत थी मैं कुछ कर नहीं पाया, आँसूँ तो मैं कबके पी चुका था सो इस दफा शराब पि ली. उस दिन मैं असहाय था. गलती की थी उसको सजा भी पायी.              समाज हमसे सिंघम की भूमिका अदा करने की आशा रखता है पर सिंघम का साथ देने वाला नहीं बनना चाहता. असल ज़िंदगी में सिंघम बनना बहुत कठिन होता है. AC दफ्तरों में काम करने वाले ज़रा-ज़रा सी बात पर आपा खोने वाले लाखों-करोड़ों का पैकेज लेने वाले हमसे हमेशा संयम बरतने की आशा करते हैं. हम कभी अपनी परिवार की परेशानियों में घिरे रहते हैं, कभी किसी राह चलते नेता के अपमान से ग्रसित रहते हैं, कभी साहब की डांट से, तो कभी खुद के असहाय होने के दर्द से. परिणामस्वरूप कभी किसी पर हाँथ उठ जाता है तो कभी किसी का अपमान हो जाता है, क्यूंकि हम पर उँगलियाँ उठने के लिए लाखों हैं पर उँगलियाँ थामने चंद. ये समाज हमे पत्थर सा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता तो मेरी समाज से कोई उम्मीद भी नहीं है. वो समाज जो कोरोना से ठीक होने के बाद अपने पड़ोसी को अछूत सा समझ अपने मोहल्ले से निकलने की कोशिश करे या उनका दिनचर्या में बाधा उत्त्पन्न करे उससे कोई उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए वो वैसे भी मानवता की परिभाषा से दूर भाग चुका है.                    बस आशा करता हूँ की समाज हमारा भी परेशानियां समझे, हमे भी अपनों सा समझे, आरोप लगाने से पहले उसका तथ्य जान ले. हो सकता हैं मेरे ही किसी साथी ने या कभी मैंने भी आपको हानि पहुँचाई हो पर वो कभी भी इरादतन नहीं गई गई होगी. मैं अभी यहाँ आइसोलेशन वार्ड में हूँ पर मेरे साथी अभी कोरोना की रोकधाम के लिए प्रयासरत हैं. धूप में खड़े होंगे, कोई खाना खा रहा होगा, कोई वायरलेस सेट पर जवाब दे रहा होगा, कोई अपने घर बात कर रहा होगा, कोई घर जाने की आस लगाए बैठा होगा, कोई सैंपल लेने वाली टीम के साथ होगा. मैं जिस दिन यहाँ से ठीक होकर निकलूंगा उस दिन मेरे साथी और मेरे अधिकारी मुझे शुबकामनाएं देंगे और कुछ समय बाद ड्यूटी ज्वाइन करने भी कहेंगे. मेरा परिवार उस समाज से बोहोत अच्छा है जो हमे पत्थर सा कहता है, हम एक-दूसरे के साथ खड़े तो होते हैं, आपकी तरह लोग जो स्वस्थ हैं उनके साथ छुआछूत सा व्यवहार तो नहीं करते हैं.                 चलिए मेरी चाय आ गयी है, कहने को तो और भी बहुत है, पर अभी इतना ही, अगली बार जब मिलूंगा तो चाहूंगा की हमसे सिंघम की भूमिका निभाने की चाह रखने वाले सिंघम के साथ खड़े होने भी लगे हों. हमें कुछ कहने से पहले उस परिस्तिथि को समझें और गाँधी जी ने जो कहा था उसका अनुपालन भी करें, “Be the change that you wish to see in the world” बैच नं. 1841(सानिध्य पस्तोर)

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अधूरा ख़्वाब

बड़ी झील के पास लहरों में हो रही हलचलों के बीच उसने मेरे शानो पर सर रखते हुए पूछा, हम एक साथ ख़्वाब क्यों नहीं देख सकते?मैंने कहा, मैं अक्सर…

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बचा हुआ काम

मैं बर्फ से भी कई गुना ज्यादा ठण्डा हो चुका था। मेरे शरीर का तापमान कितना रहा होगा मुझे याद नहीं, लेकिन मुझे जैसे ही कोई छूता तो उसके पूरे शरीर…

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