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ज़िद्दी

बहुत ज़िद्दी हूँ मैं…..
किसी किताब के सजिल्द आवरण की तरह….
जो संभाले रहता है,किताब के तमाम पन्नों को…
उनके अपने कुल हुस्न के साथ….
किसी भी सूरत में,उन्हें होने नहीं देता बेपर्दा….
मुझे कतई नहीं लगता कि….
मैं मेरा पेपरबैक संस्करण होना पसंद करती…
बाद कुछ वक़्त, मेरे पन्नों से झांकते कुछ हर्फ़
मेरी हस्ती के कोने की नुमाइश करते….
जो मुझे सख़्त नागवार होता….
लिहाज़ा मुझे मेरी ज़िद्द मुतमइन करती है…कि
मेरी तमाम कहानी,मगरूरियत के साथ ही सही…
मय हुस्न…
अपने जिस्म में ….
हिफाज़त के साथ मौजूद है….
मैं फ़क़त इसलिए अपनी ज़िद्द की तलबगार भी हूँ…
कि मेरे पन्ने पसंद करते हैं…
अपनी ही अना के पेपरवेट तले….
मोड़े जाना…
कि मेरे पन्नों को नहीं पसंद…..
अपने बिगड़े रूप-रंग के साथ जीना…

-सुनंदा जैन ‘अना’