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लाजो

मेरा नाम तो है लाजवंती लेकिन गांव के लोग मुझे लाजो कह के बुलाते हैं। हमारे गांव से सिर्फ दस किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान की सरहद है।
बचपन में ही बाप का साया सर से उठ गया था तब से अम्मा किसी न किसी तरह से हम दोनों बहनों को पाल रही है। गांव में ग़रीबी का ये आलम है कि अभी तक ना किसी के घर में गैस चूल्हा है और ना ही शौचालय है।
ग़रीबी के कारण इधर कुछ सालों से हमारे गांव की औरतें और लड़कियां शादी ब्याह के मौके पर बैंड पार्टी और आर्केस्ट्रा में नाचने का काम करने लगीं हैं।
पिछले साल जब मैं चौदह साल की थी तब यूपी का एक भैया लगन के दिनों में एक महीना नाचने के लिए मेरी अम्मा से तीन हजार रुपए में मेरा सौदा तय करके ले गया था।
उस यूपी के भैया ने महीने के बदले देढ़ महीने तक मुझे नचाया था और तीन हज़ार र के बदले सिर्फ देढ़ हज़ार दे कर मुझे टरका दिया था।
मैं ने किवाड़ की आड़ से देखा तो इस बार दूसरा कोई आदमी था जो अम्मा से मोल जोल कर रहा था। उसकी उमर पचास के आसपास रही होगी।
मर्दानी कुर्ता पहने,सर के सफेद बालों के साथ रंगे हुए मूंछों को बार बार ऐंठ रहा था और अपना नाम ललन प्रसाद बता रहा था। अम्मा की लाख कोशिशों के बाद भी तीन हज़ार से अधिक देने के लिए तैयार नही हो रहा था।
मैं झट से बाहर आई और बोली “अगर नचाना है चाचा तो पूरे पांच हज़ार लगेंगे, वो भी सब एडवांस में, नहीं तो दूसरा दरवाज़ा देखो।”
उसे चाचा इसलिए बोली कि वो बिल्कुल हमारे स्वर्गीय बाबू जी की उमर का था।
मेरी बातें सुनकर चाचा ने मुझे नीचे से ऊपर तक निहारा और अम्मा से बोला ” तुम तो जानती ही हो बहन कि आर्केस्ट्रा में कितना खर्चा आता है। चलो चार हज़ार देंगे लेकिन एडवांस में सिर्फ एक हज़ार हैं रख लो, बाक़ी रक़म और लौंडिया दोनों लगन ख़तम होते ही तुम्हारे पास पहुंचा दूंगा।
ख़ैर महीने भर में चार हज़ार मिलता देख कर अम्मा ने मुझे उसके साथ चलता कर दिया।
दो दिनों का सफ़र तय करके बिहार पहुंचते पहुंचते रात हो गई। अंधेरे में कुछ समझ में नही आ रहा था कि हम कहां जा रहे हैं,कौन सा इलाक़ा है।
ख़ैर बाप के उमर का चाचा साथ था इसलिए डर नही लग रहा था।
शहर की गलियों में रात में भी दिन का एहसास हो रहा था। एक पतली सी गली से गुज़रते हुए एक छोटे से कमरे में चाचा ने ले जाकर मुझे बंद किया और बाहर कुछ खाना पीना लाने चला गया।
कमरे में नाम मात्र का सामान था जो तितर बितर इधर उधर बिखरा पड़ा था। सीलन भरी बदबू से सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। ऐसा लगता था जैसे कभी कभी ही इस कमरे में इंसानों का ठहराव होता है।
एक घंटे बाद चाचा खाने का कुछ सामान और पीने का पानी वगैरह ले कर आया।
अंडे का आमलेट और रोटी, भर पेट खाने के बाद चाचा ने दारू की शीशी निकाली और पीने लगा। साथ साथ मुझे भी पीने के लिए दबाव डालने लगा।
ललन प्रसाद – पी लो बिटिया—सफर की थकान उतर जाएगी।
लाजो – नही चाचा मैं नही पीती।
ललन प्रसाद – अरे थोड़ा सा पी कर तो देखो।
ये कहते हुए उसने ज़बरदस्ती मेरे मुंह में गिलास ठूंसना शुरू कर दिया।
मैं ने बचपन में अपने बाबूजी को पीते हुए देखा था। मां कहती है कि तुम्हारे बाबूजी दारू के चलते ही असमय काल के गाल में समा गए।
चाचा ज़बरदस्ती पर ज़बरदस्ती गिलास मेरे मुंह में ठूंसे जा रहा था। मजबूरन मैं ने एक घूंट पी लिया।
फिर चाचा ने ज़बरदस्ती जारी रखी और मुझे तीन गिलास तक पिला दिया।
मेरा माथा चक्कर खाने लगा और मैं लेट गई।
नींद में अचानक मुझे पेट के निचले हिस्से में भयानक दर्द महसूस हुआ। मैं ने आंखें खोलना चाहा लेकिन आंखें खुल नही रही थीं। उसके बाद पता नही मैं कब सो गई। फिर जब मैं जब जागी तो सुबह के दस बज रहे थे। मेरे आधे कपड़े मेरे शरीर पर नहीं थे। मैं ने बिस्तर से उठना चाहा लेकिन चक्कर खा कर गिर पड़ी।
कमरे का दरवाज़ा बाहर से बंद था। मेरे होंठ सूख गए थे और मुझे ज़ोर से प्यास लग रही थी । कमरे में पीने का पानी भी नहीं था।
पेट में काफ़ी दर्द हो रहा था। मैं पेट पकड़ कर रोने लगी। लेकिन चाचा का कहीं अता-पता नही था। मैं रोती रही, रोती रही।
कुछ देर बाद मुझे एहसास हुआ कि चाचा ने मेरे साथ गंदा काम किया है। जिस इंसान को मैं अपने बाप के बराबर समझ रही थी उसने मेरे साथ हैवानियत की इंतहा कर दी थी।
मैं मां को कोसने लगी कि उसने किस शैतान के साथ मुझे भेज दिया। बाप के उमर के इंसान को शैतान बनते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था।
बारह बजे के क़रीब चाचा आ गया। साथ में खाने का कुछ सामान, नहाने और मेकअप का कुछ सामान और दर्द की कुछ टिकिया भी लाया था।
उसने आते ही कहा – लाजो—खाना खाकर दवा खा लेना और नहा धो कर तैयार रहना। शाम में बारात लगाने चलना है।
मेरा मन किया कि उसका सर फोड़ दूं लेकिन मैं उसके सामने मुर्गी के चूज़े के बराबर थी इसलिए कुछ नही कर पाई।
कल जो इंसान मेरे बाप जैसा दिखाई दे रहा था आज साक्षात राक्षस के रूप में मेरे सामने खड़ा था। देखते ही देखते वो दरवाज़ा बाहर से बंद कर के चला गया।
मैं चार बजे शाम तक बिना कुछ खाए पीए रोती रही। मेरे पेट में काफ़ी दर्द हो रहा था। मुझे अम्मा की बहुत याद आ रही थी।
मैं ने मन ही मन भगवान से पूछा कि लोग तो कहते हैं कि तू बड़ा दयालु है। ये कैसी दया कर रहा तू। एक तो इतना ग़रीब बनाया की आज तक भर पेट खाना और तन भर कपड़ा नसीब नही हुआ और उसपर सितम ये कि जानवरों के हाथों का खिलौना बना दिया। वाह रे दयालु भगवन अगर मेरी जगह तू होता तो तुझे पता चलता कि पंद्रह साल की बच्ची को इस परिस्थिति में किस तरह की पीड़ा होती है।
तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ हुई। मैं ने सोचा वही शैतान चाचा होगा लेकिन ये कोई बीस बाईस साल का नौजवान था। आते ही उसने कहा मैं गोलू हूं, इस मकान के मालिक का बेटा। ललन चाचा ने फोन किया था कि तुझे लेकर मैरेज हॉल पहुंचना है।
मैं ने कहा – लेकिन मैं तैयार नही हूं भैया।
गोलू – मुझे भैया वैया मत कह, जल्दी से तैयार हो जा, मैं अभी आता हूं।
ये कहते हुए वो बाहर से ताला लगा कर चला गया।
मुझे लग रहा था कि मैं चल नहीं पाऊंगी। लेकिन मैं कसाई के खूंटे पर बंधी हुई गाय की तरह थी। मैं भागूं तो कैसे भागूं, भागूं तो कहां भागूं। पापी पेट ने मुझे इस उमर में कहां से कहां पहुंचा दिया था।
मजबूरन मुझे गोलू के साथ जाना पड़ा। वहां पहुंच कर मैंने शैतान चाचा से कहा – मेरे शरीर में जान नही पड़ रही है चाचा, मैं नाच नही पाऊंगी।
ललन प्रसाद – अरे तू क्या तेरी मां भी नाचेगी। तेरे चलते क्या मैं दस हज़ार का सट्टा छोड़ दूं।
मैं ने कहा – मुझसे कल नचवा लेना चाचा। बस आज छोड़ दो।
ललन प्रसाद ने मेरा बाल पकड़ा और एक कमरे में ले गया जहां दो और लड़कियां पहले से मौजूद थीं। उनकी तरफ इशारा करते हुए उसने कहा –
देख– ये तो तेरे जैसे नखरें नहीं कर रही हैं।
मैं ने चाचा के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा –
चाचा, तू जानता है कि मैं कितनी पीड़ा में हूं फिर भी मुझपर रहम नही कर रहा है।
चाचा ने पॉकेट से दारू की शीशी निकालते हुए कहा – अभी तेरा सारा दर्द दूर हो जाएगा। ले इसे पी ले।
और दारु की शीशी मेरे मुंह में घुसा दिया। मेरे हल्क़ में दो तीन घूंट दारू उतरती चली गई। उसने जल्दी से शीशी निकालते हुए कहा – बस कर, नही तो टल्ली हो जाएगी तो नाचेगी कैसे।
एक बार फिर मेरा माथा घूमने लगा और मैं चकरा कर बैठ गई। इस बीच बैंड बाजा बजाने लगा और स्टेज सजने लगा। मुझे सहारा देकर नाचने वाली गाड़ी के ऊपर चढ़ा दिया गया।
मरता क्या नही करता। मैंने लड़खड़ाते हुए नाचना शुरू कर दिया। मेरा लड़खड़ा कर नाचना, दर्शकों में शायद अधिक उत्तेजना पैदा कर रहा था। मेरी तकलीफ़ में लोगों को मेरी अदा नज़र आ रही थी। बाराती सड़कों पर दिवानावार नाच रहे थे और मेरे लटके झटके देखकर सीटियां बजा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उनमें से किसी के भी घर में मेरी उम्र की बहन बेटी नही है।
बहरहाल बारह बजे रात को मुझे फुर्सत मिली और गोलू मुझे अपने घर के उस बोसीदा कमरे में वापस लाया जहां पर मैं कल से क़ैद थी।
मेरे बदन का जोड़ जोड़ टूट रहा था। मैं पहुंचते ही निढाल होकर बिस्तर पर लेट गई। मुझे इस बात का एहसास ही नही रहा कि गोलू दरवाज़ा बंद कर के चला गया या अभी यहीं रुका हुआ है।
एहसास तब हुआ जब मुझे पिछली रात जैसा दर्द एक बार फिर महसूस हुआ।
मैं ने हड़बड़ा कर उठना चाहा लेकिन उठ नही सकी। चिल्लाना चाहा लेकिन चिल्ला नही सकी। उसने मेरे मुंह पर अपना मज़बूत हाथ जमा रखा था।
मैंने मन ही मन भगवान का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि तू सचमुच बड़ा दयालु है जो मुझे ज़ुल्म करने वाला पुरुष नहीं बनाया बल्कि ज़ुल्म सहने वाली स्त्री बनाया । मुझसे वो पाप नही हो पाता जो पाप आज पुरुषों द्वारा मेरे साथ किया जा रहा है।
फिर तो ये सिलसिला यूं ही चलने लगा। लगभग रोज़ बिस्तर से स्टेज तक मुझे रौंदा जाने लगा। पिछले साल भी मैं नाचने निकली थी लेकिन तब ऐसा कुछ नही हुआ था।
महीना पूरा हो चुका था। लेकिन चाचा डेट पर डेट बढ़ाए जा रहा था। उसने मेरे खाने पीने रहने सहने की जिम्मेदारीदारी गोलू पर डाल रखी थी। जो मेरी देखभाल अब बढ़िया से कर रहा था।
फिर मुझे उलटी आनी शुरू हो गई। गोलू इस खेल का पूराना खिलाड़ी लग रहा था। उसने दवा की दुकान से गर्भ जांचने वाली कोई चीज़ लाकर मेरा पेशाब जांच किया और बताया कि मेरे पेट में गर्भ ठहर गया है।
इन सब बातों का तो मुझे कोई अनुभव था नही। मैं ने गोलू से पूछा–अब क्या होगा ??
गोलू ने कहा- घबराओ मत लाजो, हमारे धंधे में ये सब चलता ही रहता है।
फिर उसी रात उसने मुझे गर्भ नष्ट करने वाली दवा लाकर खिलाया।
अगली सुबह से मेरे शरीर से खून गिरना शुरू हो गया जो तीन दिनों तक लगातार जारी रहा। पेट में तेज़ दर्द और बुखार भी हो गया। मैं अधमरी सी हो गई।
करते धरते लगन समाप्त हो गया और ललन चाचा मेरे हाथ पर पूरे चार हज़ार रुपए रखते हुए बोला –
अगर ज़बान बंद रखोगी तो हर साल कमाई बढ़ती ही जाएगी। इस धंधे में थोड़ा ऊंच नीच चलता ही रहता है। अभी छोटी हो, धीरे धीरे सब सीख जाओगी।
उसने गोलू के हाथों मेरी अधमरी लाश को मेरे घर के क़रीब वाले स्टेशन तक पहुंचा दिया जहां से मेरी अम्मा आकर मुझे अपने साथ ले गई।

-अब्दुल ग़फ़्फ़ार