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मां

गांव के पुराने मंदिर से
घर के कुलदेवता तक
पिछवाड़े के बूढ़े पीपल से
आंगन की तुलसी तक
पूजा के लिए सुबह-सुबह
चुने जाने वाले अड़हुल
और कनैल के ताजा फूलों में
मंदिर की घंटियों और
घरों से उठने वाली
अबोध प्रार्थनाओं में
चूल्हे से उठने वाली
भात और रोटियों की ख़ुशबू
सब्जियों की छौंक में
तुम ही तो होती हो न, मां

खिड़की पर बैठी
गौरैया की मासूमियत में
गहन उदासी और दर्द में
माथे पर घूमती-फिरती
पत्नी की उंगलियों
बहनों की चिंताओं
बेटियों की झिडकियों
नन्हीं पोती के दुलार
किसी भी संकट में आगे बढ़े
दोस्त के आत्मीय हाथों में
महसूस होती है
तुम्हारी ही ममता की ऊष्मा

झुलसाती गरमी हो तो
शीतल हवा के स्पर्श में
सर्दियों में अलाव की आग में
मकई की रोटियों
सरसों और बथुआ के साग में
भूख के बाद की तृप्ति
संयोग से आई गहरी नींद
आंखों की कम होती रोशनी में
तू ही तो दिखती है न हर बार

सिर्फ मर जाने भर से
तू कहाँ मर गई है, मेरी मां !

– ध्रुव गुप्त