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बहार आ रही है

फ़िज़ा खुशनुमा है ज़मीं गा रही है,
विदा कर खिज़ा को बहार आ रही हैं

खेत में सरसों की बालियां सैकड़ों फिर,
तिरी बाली क्यों मुझको याद आ रही हैं

जानी पहचानी सी है ये बाद-ए-बहारा,
भरके खुद में तेरी खुशबुएँ ला रही हैं

जुल्फ़ें तुमने बिखेरी है शायद कहीं पर,
जुल्फें मेरी जो ये इतनी लहरा रही हैं

ये तिरी याद है या है धोखा नज़र का
हर जगह तेरी सूरत नज़र आ रही हैं

इक कमी हैं तुम्हारी उसे पूरी कर दो,
ये कमी मुझको शाम-ओ-सहर खा रही हैं

खो गयी रश्मियां छिप गया शम्स देखो,
आसमां पर ये कैसी घटा छा रही हैं

अंकित कुमार