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परछाइयां

“कुछ देर पहले तक वो यहीं था। बालकनी में बैठ कर सिगरेट पी रहा था। मैं भी उसके साथ ही था। पता नहीं अचानक से कहाँ चला गया। मुझे उसकी तलाश करनी चाहिए।”

इतना सोचकर वो उस इमारत से किसी साये की तरह उतरकर सड़क पर चला आया। रात के 11 बज रहे थे। शहर में अब भी मेट्रो आखिरी मेट्रो अपने-अपने सवारियों की तलाश में लोहे की पटरियों को चूम रही थी। वो जानता था की उसे जिसकी तलाश है वो अभी भी किसी मेट्रो की सीट पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा होगा या मेट्रो में आने वाले लोगों की भीड़ में कोई चेहरा तलाश रहा होगा। वो इस शख्स के साथ हमेशा उसकी तलाश और तड़प का हिस्सा रहा है।

रात के उस पहर में शहर के ज्यादातर लोगों की दौड़ उनके बिस्तरों पर जाकर खत्म हो गई थी। लेकिन अब भी ऐसे लोग थे जो अपने-अपने ठिकानों पर नहीं पहुंचे थे। कुछ मेट्रो की सीट ऊंघ रहे थे तो कुछ अपनी प्रेमिकाओं को अपने सीने में दुनिया से छिपाकर रखते हुए अनजान बनने की नाकाम कोशिशों में लगे हुए थे।

वो मेट्रो के एक कोच से दूसरे कोच की तरफ बेतहाशा किसी को ढूंढ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उस से उसके शरीर का कोई हिस्सा खो गया हो। वहां मौजूद और लोग उसकी उपस्थिति से अनजान थे। लेकिन वो सबके चेहरे देख पा रहा था। बहुत तलाश करने के बाद वो मेट्रो की दीवार पर आकर चिपक गया।

“इंसान लापता क्यों होते होंगे। किसी का चले जाना मौत से भयानक क्यों होता है। मेरी किस्मत भी कितनी अजीब है। मैं तो मर भी नहीं सकता। वो जबतक इस दुनिया में मौजूद है मैं जिंदा ही रहूंगा। वो भी तो उस लड़की के लिए ऐसा ही सोचता था। दोनों अपने प्यार में अघाते नहीं फूलते थे। उसकी वजह से हीं मेरे दिल में भी किसी के लिए प्यार के बीज फूटे थे। वो जब उस लडक़ी को चूमता था तब मैं भी एक लड़की को चूम लेता था। मेरे सीने में दिल न होते हुए भी मुझे लगता था की मेरे अंदर मांस का एक लोथड़ा पहली बार अपने महबूब से मिल रही किसी लड़की के कांपते होठों सा धड़क रहा था। उस लड़की के जाने से मेरी भी मुहब्बत मुझसे दूर हो गई। और वो तो पागल ही हो गया। अभी हाल में ही तो उसने एक अनजान लडक़ी को इसलिए थप्पड़ मार दिया था क्योंकि वो किसी लड़के से कह रही थी “मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी”। मैं जानता हूँ वो पागल नहीं है। लेकिन अब कभी कभी हो जाता है। लड़की को थप्पड़ मारने के बाद उसे लोगो ने खूब पीटा था। मैं भी पीटा था। मुझे चोट नही आई। उसे भी शायद चोट नहीं आयी होगी। इतने बुरे ढंग से पीटे जाने के बाद भी वो हंस रहा था। मैंने उसे तब भी पागल नहीं समझा था। अब भी नही समझता। परिंदा था वो। हमेशा उड़ने की सोचता था। उड़ा भी था कई बार। वो और वो लड़की दोनों रात पूनम की रात देर रात आसमान में उड़ते थे। और फिर शहर की किसी ऊंची इमारत के छत पर खड़े होकर सुस्ताते हुए एक दूसरे को चुम लेते थे।”

उसके सोच का काफिला मेट्रो में आती एक भीड़ की आवाज ने रोक दिया। उसने इधर-उधर निगाहें दौड़ाई तो देखा की सुबह हो गयी थी। दिन के उजाले ने उसके अक्स को भी हवा की तरह पारदर्शी और महीन कर दिया था। पर उस मेट्रो में उसका वजूद था। वो अपने आस पास फिर से नए चेहरों के बीच उसे ढूंढ रहा था। काल की रात बीत जाने के बाद चेहरे भी बदल गए थे। वो लोगों के बीच से चलकर मेट्रो के दरवाजे पर खड़ा हो गया।

“सुबह हो गयी। अभी तक वो नहीं मिला। कहीं वो मुझे छोड़कर कहीं दूर आसमान में उड़ तो नही रहा। नहीं, वो उस लड़की के बिना कभी आसमान में नही उड़ा। एक बार उसने उसने उड़ने की कोशिश की थी तो किसी पंख विहीन पक्षी की तरह जमीन पर गिर पड़ा था। नहीं, उसे उड़ना नही चाहिए। मुझे यकीन है वो उड़ नही रहा होगा।”

मेट्रो के हर नए स्टेशन पर पहुंचने के बाद मेट्रो में हर बार नए चहरे आते। वो अभी भी मेट्रो के दरवाजे से चिपका कांच से बाहर भागती पटरियों को देख रहा था। मेट्रो की पटरियां कितनी खाली होती है। कितना सारा खालीपन लेकर ये पटरियां लोगो को अपने मंजिल तक पहुंचाती हैं।

मेट्रो जब एक स्टेशन पर रुकी तब उसने स्टेशन के दूसरे प्लेटफार्म की पटरी पर एक कबूतर की लाश को देखा। मेट्रो की पटरियां खाली होती हैं लेकिन उनमें करंट होता है। उसने एक नजर इस मारे कबूतर पर डाली।

“ये कबूतर भी शायद किसी उड़ान में होगा। पर शायद अकेला उड़ रहा होगा इसलिए गिर गया होगा। आदमी अकेला होता है तो चाहे अंदर से कितना भी खोखला या खाली हो जाए, दिल में जमी बर्फ उसमे इतना वजन डाल देती है की कोई भी पंख उसे उड़ने नहीं देती। मैं जिसकी तलाश में हूँ वो भी शायद ऐसे ही उड़ा होगा। और ऐसे ही इस कबूतर की भांति कहीं किसी पटरी पर या किसी के आंगन में गिर गया होगा। वो शायद अपने घर के आंगन में ही गिरा होगा जहां उसकी मां अब भी अपनी बूढ़ी आंखों से चावल से कंकड़ निकाल रही होगी। अगर वो सच में कहीं गिर गया है तो अब मैं किसकी तलाश करूँ। मेरा तो वजूद ही उस से हैं। परछाइयां साथ छोड़ती हैं पर उसने अपनी परछाईं को ही छोड़ दिया। अब मैं कहाँ जाऊंगा। अब मुझे उस लड़की की परछाई भी नही मिलेगी जिसे मैं तब चूमा करता था जब वो लड़की को चूमता था।”

मेट्रो की भीड़ में किसी शख्स का भटका हुआ साया मेट्रो की एक दीवार पर चिपका तड़प रहा था। मेट्रो के दरवाजे आदतन खुल रहे थे बन्द हो रहे थे। नए चेहरे आ रहे थे जा रहे थे। मेट्रो में एक ऐसी लड़की का भी चेहरा आया जिसे वो साया जानता था।

“मुझे शायद वो न मिले पर मैं अपनी मुहब्बत को तो चुरा ही सकता हूँ। उसके साथ आसमानों में उड़ने वाली यह लड़की आज जमीन पर किसी और के साथ है। इसे पता भी नही चलेगा और मैं इसकी परछाई चुराकर दूर किसी अंधेरे शमशान में चला जाऊंगा। इसकी परछाई और मैं तब ही दिखेंगे जब शमशान में कोई चिता जलेगी। कौन कहता है मौत के बाद परछाइयां नहीं दिखती।”

अरहान असफ़ल