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जीवन सत्य

एक शोर मौन लेता है
जब हार मिली हो समर से,
दुनिया से भी डरता है
जो हुआ उपेक्षित घर से,

झरने बन जाती आँखें
पीड़ा डाले जब डेरा,
हर ओर निशा है दिखती
है दूर उदय को सवेरा,

हैं पाप सरल हो जाना
मिलता है विनय अहम को,
दिनकर ने यश खोया है
यश मिला यहाँ पर तम को,

आशाएँ मृत शैय्या पर
विश्वास की टूटी साँसें,
जो कांटें फूल बने थे
वे चुभ-चुभकर हैं हांसें,

दर्पण कहता खुद अब तो,
मुस्काना भूल गया है,
अन्तस् तक आज ह्रदय के
अपनों का शूल गया है,

विचलित है, मन व्यतित है
निर्मम से मन के खातिर,
जो मन भोले दिखते हैं
वे मन ही सब से शातिर,

स्वर दबते-दबते दबा है
कितनी व्याकुलता होगी!
पीड़ाओं की भाषा में
बोलो क्या मृदुलता होगी?

मत कहो सत्य को फिर से
सोये मन जाग उठे हैं,
तुम हुए हो सर्वसुलभ जब
तब-तब ही हाथ कटे हैं,

जीवन का सत्य यही है
पर पीड़ा में मर जाना,
तकलीफ़ हरो औरों की
फिर खुद पीड़ा बन जाना,

विपरीत हो दिशा नदी की
बढ़ती जाती है खाई,
जो फटता वस्त्र निरंतर
तो व्यर्थ वहाँ तुरपाई।

-कुलदीप विद्यार्थी