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चांद का जीना

भले ही अपने किसी प्रिय को
इतराने या मन रखने के लिए
चांद की उपमा दे देना वो अलग बात है,
लेकिन आसान नहीं है
चांद बनकर जीना वो भी दो पक्षों में
शुक्ल पक्ष में बढ़ते-बढ़ते पूर्ण होकर
पूर्णिमा को प्राप्त कर लेना
तो कृष्ण पक्ष में घटते-घटते
खुद के वजूद को खोकर
अमावस्या के घोर अंधकार में समा जाना
एक पक्ष में दीप्तिमान और
आकर्षक बने रहना,
तो दूसरे पक्ष में घोर अंधेरे के
आगोश में चले जाना
दिन मे तपते रहना तो रात को
ठंड में ठिठुरते रहना
चांद और सूर्य के बीच
पृथ्वी का आ जाना
और चांद को उसके अधिकार से ही
वंछित कर देना
दिन में खुद के अस्तित्व को खो देना
और रातों को असंख्य तारों के बीच
तन्हा रहना,
सोचो आसान है क्या
चांद के जैसे जीना

रवि रंजन