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कवि हूँ मैं

कुछ ख़्वाब ऐसे भी रहे
जिन्हें ना पलकें मिली
ना आंसुओ का साथ मिला
जिन्हें ना रात की नींद नसीब हुई
ना भोर की हक़ीक़त का साथ मिला
मेरा ऐसे ख्वाबों से ही नाता है

जब जब आँखों में ख़्वाब कोई सुनहरा सज गया
क़िस्मत की लकीरों को अखर गया
हासिल हो भी जाती किसी एक को तो उसकी मंज़िल
पर ज़िंदगी की उलझनों ने ऐसा जाल बुना कि
हक़ीक़त के द्वार आते आते सपना,
सपने की तरह बिखर गया
हर बार जिन्होंने जीत की दहलीज़ पे दम तोड़ा
मेरा ऐसे ही प्रयासों से नाता है

सपनों की टूटन ने भर दिया नैराशय मेरे अंदर
ऐसे में कैसे मैं नाद विजय का सुन पाता
जीत के द्वार जा जा कर ख़ाली हाथ लौटे जो प्रयास
उन्होंने ही सौंपा मुझे ये अन्धकार
ऐसे में कैसे मैं जग की सुंदरता देख पाता
टूटे सपने ,विफल प्रयास ,अनकही पीड़ा
ही जिनका भाग्य बनी हो
ऐसे हर शोषित मानस से मेरा नाता है

हाँ कवि हूं मैं
राजदरबारों की चौखटों से नही
हर पीड़ित जन के दिल से मेरा नाता है

संजय यादव