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आज़ाद परिंदा

तू दुखी क्यों है?
जो दुखी है तो रोती क्यों नहीं?
इंसान है, भावनाएं हैं
बह जाने दे
क्यों समेट रही है
खोल बाहों को
तू परिंदा है
खुद को कैद मत कर
उड़ तो सही
इस डाल से उस डाल तक
याद तो आएगी
उस पेड़ की
पर छांव नहीं है वहां
बंजर है वो
तो समंदर पार क्यों नहीं करती
चली जा उस पार
द्वीप है
कई पेड़, पहाड़ और आसमान हैं
रुक मत
चल ठीक है
पर रो मत
हंस ले
बिल्कुल वैसे जैसे पहली बार हंस रही हो

-रजत अभिनय सिंह