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ग़ज़ल

मैं राहे जन्नत का अस्ल नक़्शा चुरा रहा था
सो उँगलियों को तेरे लबों पर फिरा रहा था

मैं इसलिए भी सर अपना “हाँ” में हिला रहा था
मुझे पता है तू सिर्फ बातें बना रहा था

बिछड़ के हमसे,हमारी गलती गिना रहा था
हमारा ग़म था,हमीं को आँखें दिखा रहा था

वो खुद को दुनिया का एक हिस्सा बना चुकी थी
मैं अपने हिस्से का प्यार जिसपर लुटा रहा था

तुम्हीं ने जाने को कह दिया है, तुम्हीं कहोगे
उसे बुलाओ,वो शेर अच्छे सुना रहा था

विक्रम गौर ‘ वैरागी’